Tuesday 17 June 2014

हेमलता महिश्वर की कहानी- "बेदख़ल"

उस दिन जब पंडिज्जी दिशा मैदान के लिए निकले तो मुंह अंधेरे ही उनका पहला कदम किसी सख़्त चीज़ से टकराया. और दूसरा कदम कुछ कपड़े जैसी किसी चीज में फंस गया था. पैर में लगी चोट को सहलाने बैठते तो धोती में ही पीली-पीली गीली-सी छाप पड़ जाती. इसलिए लोटा संभाला और होंठों को दाँतों में दबाए सिसकारी भर ली. सोचने लगे कि ‘मैं यहां कहां आ गया?’ मन-ही-मन राम नाम जपने की जगह गांव के बाहर की ओर जाने वाली पगडंडी पर पत्थर जैसी सख़्त चीज फेंकने वाले की मां-बहन-बेटी सबके साथ एक साथ वही करते-करते सिसकारी भरते रहे. सी-सी करते करते गए और सी-सी करते आए. जब वापस आने लगे तो झुटपुट उजियारा गांव में दस्तक देने लगा था. पूरब दिशा का नारंगी रंग सूरज के आने की चेतावनी दे रहा था.
हीरालाल राजस्थानी द्वारा बनाया शिल्प
पंडिज्जी को जल्दी थी कि देखें आखि़र रास्ते में क्या पड़ा था जिसके कारण सुबह-ही-सुबह गरीब ब्राह्मण को चोट आ गई. वे अपनी धोती संभाले, खेत की मेड़ पर लहलहाते बबूल की सबसे नर्म टहनी की मुखारी मुंह में चुभलाते, लंगड़ाते हुए गांव के मुहाने की तरफ बढ़े चले आ रहे थे. पहला घर ही उनका था. उनका तो नहीं था, था तो लरंगसाय का, पर करते क्या?
उनका कोई पुश्तैनी गांव तो था नहीं. अब यह पेट जो न करवा दे. पहले तो अकेले ही निकल पड़े थे आजीविका की खोज में. फिर जब स्कूल में गुरुजी हो गए तो इधर अपने घर से इतनी दूर बड़े लम्बे समय के लिए रहने आना पड़ा. अब आना पड़ा तो अपने रिवाज के विरुद्ध, पत्नी और दोनों बच्चों को भी साथ ले लिया. कितना कुछ कहा था घर के लोगों ने अकेली दो-दो बच्चे कैसे संभालेगी यहां रहेगी तो तुम्हारा भी आना-जाना लगा रहेगा. पर वे चले आए. कस्बे के कोश्टा पारा में उन्हें थोड़ा सुविधाजनक मकान मिल गया था. रेल के डिब्बे की तरह तीन कमरे और पीछे आंगन. आंगन में पीछे की बाउंड्रीवाल से लगे लेट - बाथ. बाहर निकलकर उनकी पत्नी ने बस इतनी आधुनिकता अपना ली थी कि वे घुंघट में नहीं रहतीं पर बाकी सारे संस्कार स्वाभाविक तौर पर वैसे ही रहे, जैसे कि ऐसे परिवारों के होते हैं. यहां उन्हें सब बड़ा अजीब लगता. वे बहुत हंसती थीं, यहां के अटपटे रिवाजों को देखकर.
यहां उन्होंने पहली बार देखा था कि औरतें भी खुले में सबके सामने स्नान कर लेती हैं. सामने देवांगन के घर में दो बहुएं थीं. न तो ससुर के सामने घुंघट करती थीं न जेठ के, बस सिर पर आंचल रख लेतीं. बाजू वाले कुएं में मौहल्ले की औरतें नहातीं जिनमें पुरानी ही नहीं नई-नवेली बहुएं भी होतीं. नहाते समय कमर में बंधे पेटीकोट को खींचकर अपनी छाती तक ले आतीं और वहीं जोर से बांधकर पानी उलीचते हुए स्नान कर लेतीं. इस समय वहां से यदि उनके ससुर या जेठ गुजरें तो वे सिर पर कोई भी कपड़ा चाहे वह ब्लाउज हो या रूमाल, डाल लेतीं, बाकी शरीर ढँकने का जतन न करतीं. उन्हें उनके सम्मान करने का तरीका अटपटा ही लगता जबकि वे तो ससुर के सामने ही न जाती थीं.
ऐसे में पत्नी को सुदूर जंगल के क्षेत्र में लाना पंडिज्जी को उचित नहीं लगा. उस कस्बे में ही तो किसी तरह अपनी संगति बनाए हैं पंडिताईन और फिर बच्चे का स्कूल भी है. खुद ही रात की बस से आ जाते हैं हफ्ते में एक बार और कर जाते हैं दाल -रोटी, सब्जी भाजी की सारी व्यवस्था.
बीते दिनों को याद करते करते वे उसी जगह पर पहुंच गए जहाँ उन्हें ठोकर लगी थी. जैसे ही उस पर नजर पड़ी, वे उछल पड़े उनके हाथों के तोते उड़ गए अक्ल हैरान रह गई उनकी सारी मेहनत मिट्टी में मिल गई.. साँप छछूंदर की गति हो गई, न उठाते बने न छोड़ते. उठाए तो किस मुंह से और छोड़े तो किस मुँह से.
कहीं कोई गति नहीं रह गई. फिर मन ही मन व्यवस्था को कोसने लगे. बुरा हो इस आर.टी.आई. का, वर्ना पहले तो बिना स्कूल आए ही काम चल जाता था. बस दो-चार दिन आए और हो जाता था, लग जाती थी उपस्थिति.
वहीं शहर में बड़े बाबू को पटा लो और तन्खा हर महीने हाथ में. अब तो स्कूल रोज आना पड़ता है तभी तो रजिस्टर पर रोज दर रोज हस्ताक्षर दिखते हैं. हम लोगों की बातों पर भरोसा नहीं किया जाता. ये मानवाधिकार वाले आते हैं तो सीधे बच्चों से बातें करते हैं. बच्चों को फुसलाने का समय नहीं देते, सीधे धमक पड़ते हैं. जब सरपंच ने उनकी उपस्थिति देने से इंकार कर दिया, तब लगा कि वेतन कैसे आए? मरता क्या न करता तय कर लिया कि स्कूल वाले गांव में रहा जाए. पर उस गांव में तो काले को भी नहीं जानते थे. अब उस गांव जाना हुआ तो पूछताछ शुरु की. अपने ही कार्यालय के बड़े बाबू से शिकायत की और बोले, "क्या बड़े बाबू! अब और क्या दिन दिखाओगे? न जान न पहचान कैसे रहूं वहां जाकर. इस कस्बे में तो थोड़ी पूछ-परख है. वो नंगे क्या जानेंगे मेरे बारे में. कहीं ऊंच नीच हो गई. जात बिरादरी कुछ नहीं. हम ही को बना दिए हो बलि का बकरा....क्या करें, जैसा आप चाहो.....नौकरी जो न करवा दे."
बड़े बाबू बोले, "हमें क्या सुना रहे हैं गुरुजी, आप भी नौकर हम भी नौकर. जैसा सरकार कहे."
"वो तो ठीक है पर हम तो किसी को नहीं जानते वहां....कहीं कोई मुसीबत हो गई तो."
बड़े बाबू ने बीच में ही उन्हें काटा और धीरे से बोलना शुरु किया, "अरे चिंता काहे की अब तो हिंदू धर्म बचाने के लिए जगह-जगह आश्रम बनने शुरु हो गए हैं. आदिवासियों के बीच अपनी जगह बनानी है.....माता परिवार वाले तो सुपात्र खोज ही रहे हैं. आप उनसे मिल लीजिए....बस फिर वो आपकी सहायता करते रहेंगे वह वहां मंदिर की स्थापना करना चाहते हैं, इनकी नेताओं से भी करारी बनती है. इससे राजनीति में पकड़ तो बनेगी ही और धीरे-धीरे गांव में साख भी बन जाएगी. सब्जी-भाजी, जंगली कंद-मूल तो बस यों ही मिलने का जुगाड़ बैठा लेंगे."
पंडिज्जी के हाथ तो जैसे बटेर लग गई. बड़े बाबू की सलाह सिर आंखों में धरे माता परिवार से संपर्क साधा और सच में ही उन्होंने उनकी सहायता करना आरंभ कर दिया. सबसे पहले उनका परिचय लरंगसाय से करवा दिया जो गाहे-बगाहे कस्बे तक आता जाता रहता हाट-बाजार के दिन मुर्गी और अण्डे बेचने.
माता परिवार वालों ने लरंगसाय को बताया था कि तुम्हारे सरकारी काम करने में गुरुजी मदद करेंगे. लरंगसाय भी मान गया पांच सौ रुपए महीना के हिसाब से अपने घर की एक कुरिया में उन्हें रखने को. लरंगसाय यह पूछते कि मिट्टी के तेल के लिए परमिट कैसे बनवाना है? पंडिज्जी न केवल परमिट के लिए आवेदन लिखते बल्कि और भी सरकारी कागजी खानापूर्ति के काम कर देते. किसी की बीमारी हो, किसी को अस्पताल ले जाना हो, चिट्ठी बांचनी हो या लिखनी हो, बस....सबके लिए पंडिज्जी ही थे. पंडिज्जी को माता परिवार वालों ने चेता दिया था कि गांव के लोगों का विश्वास वे जीतेंगे तो वे सदैव उनकी मदद करते रहेंगे. पंडिज्जी केवल लरंगसाय की ही नहीं सबकी मदद को तैयार रहते. गांव वालों के बीच जगह बनाते देर लगती भला. बना ली. लरंगसाय का उन पर भरोसा और पक्का हो गया.
गांव के परले सिरे पर रहने का ठिकाना मिल ही गया था और दोपहर को स्कूल जाने लगे. सब दुआ-सलाम ठोंकते, मान देते. गाँव के लोगों को ‘पंडितजी’ बोलना सिखा दिया उन्होंने. सब आपस में ‘जय जोहार’ करते और उनके साथ ‘पांय लागी पंडिज्जी.’
सुबह-सुबह पंडिज्जी अपने दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर फूल चुनते और पता नहीं कुरिया के अंदर बड़ी जोर-जोर से जाने क्या-क्या हाथ से घंटी बजाते चिल्लाते हुए गाते रहते, दो-तीन घंटे यूं ही निकल जाते. बाहर से झांकने पर एक छोटे-से चबूतरे जैसी जगह पर कुछ फोटो और मूर्ति जैसा कुछ लाल-सिंदूरी कपड़े में रखा दिखाई देता, बस उसी के सामने कभी खड़े रहते, कभी बैठ जाते और कभी-कभी तो उबड़ा सो जाते जिसे वे सांष्टांग होना कहते.
एक दिन लरंगसाय, परेम, ननकी जब आपस में मंडई की तैयारी पर बात कर रहे थे तो उन्होंने कहा "ये दे अतना दिन होगे हे तुम्हर मन संग रहात रहात मोर कोनो ब्यौहार म तुमन ल कुछू खराब लगीस का?"
सबने एक स्वर में कहा, "नइ पंडिज्जी.....कइसे गोठियाथस?"
"मे तुम्हर लंग बड़ दिन ले एक ठो बात कहे बर चाहत रहेंव."
"त बोल ना काबर संसो करत हस?" ननकी ने कहा.
"अब तुमन त देखतेच आव मैं ह कइसे रथव एक ठन पूजा कराय के चाहत हंव तुमन ल परेष्शानी होही त नइ करवा हूं."
"ओमे का हमन ल कुछू परेसानी होही?" ननकी ने पूछा.
"नहीं सहर ले मनखे मन आहीं अऊ जुलूस निकाल हीं पूजा करके वापस रेंग दीहीं तुमन प्रलोक उहाँ आ जाहू अऊ देख लुहू कइसे हमन मन पूजा करथन."
"तैं अपन घर म करबे पूजा?" परेम ने पूछा.
"नीहीं गांव भीतर पीपल के रूख आए ना उही कर बस दिन भर के बात हे फेर सब्बोमन चल दिहीं."
ननकी, परेम, लरंग सबने एक - दूसरे की आंखों में देखा और पंडिज्जी को सहमति दे दी. दूसरे दिन कस्बे से दो जीपें आईं जिनमें केसरिया झंडे लहरा रहे थे. गांव के बाहर ही जीपें खड़ी हो गईं और उनसे करीब बीस-बाईस लोग बाहर निकल आए. वे जीप से तरह-तरह का सामान निकालने लगे. उनमें से एक आदमी को सब बहुत सम्मान दे रहे थे. उसकी आंखों में काले रंग का चश्मा चढ़ा हुआ था और मूंछें ऐंठी ऊपर की ओर चढ़ी हुई थीं. पंडिज्जी ने तुरंत खटिया पर चादर डाली और वह आदमी बैठ गया. इतने में गांव के सारे लोग वहां इकट्ठा हो गए और आश्चर्य से उन्हें देखने लगे. बच्चे जीप को छू-छूकर देखने लगे थे कि बाहर से आए लोगों ने एतराज किया, "अरे रोको भई इन लोगों को पंडितजी राजा साहब की गाड़ी खराब हो गई तो वापस कैसे जाएंगे?"
पंडिज्जी ने लरंगसाय को बुलाया और कहा, "सब्बो झन ल लेके पीपर कर चल उंहा खाई खाएबर मिलही. महँ आवत हँव तोर पाछू."
लरंगसाय सारे लोगों को लेकर चला गया. थोड़ी देर में पंडिज्जी भी चार-पाँच आदमियों और दो औरतों को लेकर वहाँ आ गए. उन्होंने सामने रहने वाली पीलाबाई से झाडू मांगी. उनके साथ के आदमी ने अपने हाथ में झाडू ली और पीपल के चारों ओर सफाई करने लगा. औरतों ने गोबर लेकर सारी जगह को साँय-साँय लीप दिया. देखते ही देखते जगह बहुत सुंदर दिखने लगी. पीपल के चारों तरफ जो चबूतरा बना था उसकी पूरब दिशा की ओर चावल के आटे से औरतों ने चौक पूरा और चली गईं. फिर लरंगसाय के यहां बैठे राजा साहब आए तो लोगों ने देखा कि उनका बाना ही अलग था. ऊपर नंगे बदन पर छाती से कमर की ओर मोटा-सा सूतली की तरह का धागा झूल रहा था कमर में केसरिया धोती बंधी हुई थी. उनके सिर पर एक आदमी ने छतरी तान रखी थी. उसके पीछे कुछ औरतें अपने सिर पर छोटे- छोटे मटके पर दिया रखे कतारबद्ध होकर चल रही थीं और तीन-चार आदमी देवता झूम रहे थे. लोगों के भीतर कौतुहल था कि ये लोग क्या कर रहे हैं, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. ननकू चिंगडू से कहने लगा, "काय करत हें ये मन ह कुछु समझत नइ हे."
"हहो महूँ ह नी जानव का अगड़म-बगड़म बोलत हें."
"मनखे कस पथरा ल रखें हे आगू मँ अऊ वोला सेंदूर हूम देवत हें."
"फेर वो मनखे के हाथ म का हे समझ नईं परत है कइसे ओखर हाथ के मसीन ह बग बग बरत रथे अऊ ये मन फोटू काला कहात हें."
"हहो कइसे कभू ये डहर आके चमकाते त कभू वो डहर जाके चमकाथे दूसर मन कस चुप्पेचाप एक कोती नई बइठे."
"फेर पंडिज्जी त बोले रिहिस हे कि पूजा करे के हे....होत होही."
"येदे उ धोतीवारा त उठ गे हे अउ पंडिज्जी हमर कोती आत हे काला बखानहि त?"
पंडितजी ने सबको बुलाया और कहा, "परसाद ले लेवव हमर राजा साहब अपन हाथ म तुमन ल देहिं तुमन एखर बाद जतेक हौ सब्बोमन एक-एक लोग लइका बहिनी महतारी सब्बो झन आवत जावव झपाहु झन."
पंडिज्जी सबको कतारबद्ध करने लग गए. राजा साहब सबको पीढ़े पर खड़ा करते, उनके पैर धोते, टीका लगाते और पूजा वाली जगह के दायीं ओर जो दरी बिछी थी वहाँ बैठने को कहते. सबके सामने पत्तल पर लड्डू, पूड़ी और बड़ा रखते जा रहे थे. गाँव के लोगों को यह भोज बहुत अच्छा लगा था. सबने अपनी-अपनी पत्तल का खानाखाया और अपने काम के लिए चले गए. बच्चे फिर जीप के पास आकर खड़े हो गए थे. राजा साहब ने आते ही सबको चलने का आदेश दिया और जीपें चल पड़ीं. बच्चे उनके पीछे थोड़ी दूर तक दौड़ते रहे फिर वापस भी आ गए.
अबकी बार जब स्कूल का आडिट कराने वो कस्बे में गए तो बड़े बाबू ने उन्हें एक अखबार दिखाया. पंडिज्जी उसे देखते ही उछल पड़े. अखबार में उनका फोटो राजा साहब के साथ था. बड़े बाबू बोले, "देखा आपने इसे आपको देने का विशेष आदेश हुआ है पंडिज्जी हमें तो आज तक यह अवसर नहीं मिल पाया और आपको इतनी आसानी से."
"अरे सब आपकी मेहरबानी का नतीजा है."
"अरे नहीं नहीं कृ सब अपने - अपने भाग्य की बात है देखिए तो कैसा शानदार शीर्षक लगाया है."
"हां आपकी कृपा है."
"अरे हमारी काहे की राजा साहब का काम है यह. इक्यावन आदिवासियों की घर वापसी हुई....मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का ही इंतजार था लोगों को विशेष सहयोग आपका है देखिए आपका नाम लिखा है बस ऐसे ही लगे रहिए."
पंडिज्जी की उस रात नींद उड़ गई. पत्नी के साथ खूब बातें कीं उन्होंने. खूब योजनाएं तैयार करने लगे कि कैसे मंदिर को और बनाया जाए. पत्नी से उन्होंने कहा कि अगले छः महीनों में वे मंदिर का परकोटा तो तैयार कर ही लेंगे.
पर अब जो हो गया, वे कैसे सूचना तक दें. इतनी मुष्किल से तो इन गधों को, राक्षसों को लाइन पर लाता रहा....कितने प्रयास किया कि भगवत भक्ति सिखा सकूं....पर ये जाने क्या करते हैं....अपने देवताओं को गाँव के बाहर जगह देते हैं, रोज पूजा करने भी नहीं जाते. हमारे विधि-विधान जानते तो आसानी हो जाती....बड़ी युक्ति से मैंने गिड़गिड़ाकर इनसे पूजा के लिए जगह मांगी थी और मंदिर बनाना शुरू किया था....अभी छत ढ़ालना बाकी था बस पंडिज्जी का आत्म-मंथन चालू था.
पीपल के उसे पेड़ के नीचे सारे गांव की जमघट लगती, जब कभी कोई पर्व-त्यौहार आता. मवेशी, मुर्गियाँ और उनके चूजे पीपल के आस-पास ही अपनी दुनिया बसाते. यदि उस समाज का कोई सदस्य कहीं और भटकने की दिशा में दिखाई पड़ता तो जिसे दिखाई पड़ता वहीं उन्हें वापस हांक लाता. ऐसा कोई न कोई रोज ही करता क्योंकि उसके चारों तरफ लगभग पंद्रह से बीस फुट की दूरी पर ही लोगों के मकान थे.
सारे मकान खपरा छाए मिट्टी के मकान थे. दीवारे भी गोबर से लिपी और आंगन भी. इसमें वे पैरा की राख घोल देते तो सारे मकान का रंग काला-धूसर दिखाई देता. गोबर के प्रयोग के बाद भी सफाई तो आंखों में जमकर रहजाती, ऐसे मकान थे. उनके आंगन में मुर्गे-मुर्गियां, उनके चूजे, बकरी तो रहते ही कहीं-कहीं भैंसें-गायें भी होतीं.
नदिया-झरिया में नहाना, जंगल से जरूरतपुरतन खाने-पीने का सामान बटोरना, सल्फी पीना, थोड़ी-बहुत खेती करना, तिहार-बार में नाचना-गाना बस इतने में ही उनके दिनों को पंख लगते रहते.
इन सबकी दिनचर्या से अलग बस पंडिज्जी का दिन गुजरता. बाकी सारा गांव जैसे रहता आ रहा था वैसे ही रहता आ रहा था. रोज सूरज खेलनसाय के घर के ऊपर से उगता और मनटोरा के घर के पीछे जो आंवले का बड़ा-सा पेड़ है, उसमें दुबक जाता. रोज ही मुर्गे की बाँग से घरों में खटर-पटर शुरू होती और गाय के ऊंघने के साथ शांत हो जाती.
मुर्गे और अपनी बकरी के साथ मंदिर के सीधे सामने रहने वाली पीलाबाई, दायें बायें के घरों में रहने वाली गुरवारिन, खेमिन, बुधवारा, चैती भी अपना-अपना रोज का काम निपटाती. बिहनिया उठते ही वे सबसे पहले घर-आंगन में झाड़ू लगाती थी. मुर्गे-मुर्गियों को घर का दरवाजा खोलकर सुबह मटरगश्ती करते चारा चुगने के लिए छोड़ देतीं. उनको ताकीद भी करती कि ज्यादा दूर नहीं जाना, यहीं रहना आस -पास. उन्हें चिंता रहती कि गांव के बाहर सड़क पर चली गईं तो किसी अनजान गाड़ी के नीचे तो नहीं आ जाएंगी. उनको छोड़ते न छोड़ते बकरी भी मिमियाने लगती. उसे प्यार से बहलाते फुसलाते, गले पर हाथ फेरते बाहर के खुंटे से बंधी रस्सी से उसे आजाद करती. इतने में पंढरी गाय रंभाने लगती, साथ में उसका बछड़ा भी. पीलाबाई उनकी जतन करने दौड़ पड़ती. सभी औरतों की दिनचर्या एक जैसी ही थी.
‘‘आ....आ....आ.’’ पीलाबाई पता नहीं कौन सी जबान में अपनी गाय से बात करती और वह रंभाना छोड़कर उसकी तरफ पता नहीं कौन-सी नजरों से देखने लगती. वह टोकनी में गोबर उठाकर इकट्ठा करती और मंदिर के सामने से होती हुई सामने घूरे में फेंककर वापस आती. फिर वह बछड़े को छोड़ती. बछड़ा दौड़कर अपनी मां के पास आता और उसके थनों में अपना मुंह लगाता. बस, इसी समय पीलाबाई का लड़का खोरबहरा बछड़े को पंढरी से अलगकर दूध दूहता और गाय बछड़े को बंधन से मुक्त कर देता.
पंडिज्जी को ऐसे सर्वसमाज के साथ सहअस्तित्व बनाकर रहना नहीं आता था बल्कि उन्होंने सीखा ही नहीं था. वे ठहरे शुद्धतावादी. सबके सामने यदि मुर्गी को भी देख लें तो परेशान, ऐसे में उनके मंदिर के आस-पास ऐसी बमचक मची रहे तो भी उन्होंने अधीर होते हुए भी धीरता का दामन न छोड़ा था. उन्होंने तय किया कि धीरे-धीरे वे सबको अपने रास्ते ले ही आएंगे जैसे बीच गांव में मंदिर बना लिया था.
एक दिन चिंगडू जाने कहां से डोलता-डालता चला आया था और गिर पड़ा था, मंदिर के बिल्कुल बाजू में. जबकि यह पंडिज्जी के संध्या वंदन का समय था. पंडिज्जी अपने ष्लोकोच्चार में लगे थे. इधर पंडिज्जी बोले "भूर्भुवः स्वः" उधर से आवाज आती "ओ ऽ ऽ ऽ क ऽ ऽ ऽ" इधर पंडिज्जी बोले "तत्सवितुर्वरेण्यम्" उधर से आवाज आती "ओ ऽ ऽ ऽ क ऽ ऽ ऽ" इधर पंडिज्जी बोले 'भर्गो देवस्य धीमहि" उधर से आवाज आती 'ओ ऽ ऽ ऽ क ऽ ऽ ऽ' इधर पंडिज्जी बोले "धीयो यो नः प्रचोदयात्" उधर से आवाज आती 'ओ ऽ ऽ ऽ क ऽ ऽ ऽ' पंडिज्जी परेशान हो गए. उनका ध्यान पूजा अर्चना से बार-बार भटक जाता और बाहर की तरफ चला जाता. उन्होंने अपना उत्तरीय संभाला और अपने भीतर से बाहर आए. अब बाहर का नजारा बड़ा ही वीभत्स लगा उन्हें. उनके मंदिर के लगभग बाजू में ही चिंगड़ू उल्टियां कर रहा था. लोग उसके आस-पास आने लगे थे. चिंगड़ू धरती पर पड़ा मिट्टी में लोट-पोट होता बदरंग हुआ जा रहा था. उसके काले चमकीले शरीर पर धूसर रंग के धब्बे दिखाई दे रहे थे और मुँह से पीले रंग का द्रव्य बाहर हो रहा था. पीलाबाई दौड़ती हुई इमली ले आई थी. वह इमली का गुदा पानी में घोलने का प्रयास कर रही थी. पंडिज्जी समझ गए कि उसे दारू चढ़ गई थी. ऐसी स्थिति देख उनका मन खिन्न हो गया था. पर वे कुछ बोले नहीं और चुपचाप चले गए.
अगले दिन लोगों ने देखा कि पंडिज्जी मंदिर को घेरने के लिए उससे कुछ दूरी पर पत्थरों की चट्टी बनाने लगे.
चिंगड़ू ने आश्चर्य से उन्हें देखा और पूछा, "का करत हस पंडिज्जी?"
बड़े ही सौम्य होते हुए पंडिज्जी ने कहा, "मंदिर पवित्रा जागा होथे, उहाँ गंदा नई करैं."
"पवितर....ये का होथे?"
"अब तोला कइसे समझावँव भोकलु गतर....तैं अतका जान ले कि काल तैं जइसन इहाँ उल्टी करत रहेस त इहाँगंदगी हो गिस अइसे नई होये का चाही."
चिंगड़ू थोड़ा शर्मिंदा हुआ और अपने काम पर चल पड़ा. कल पड़ोस के गांव में मंडी थी तो वहीं देवता पूजने के बाद परसाद ज्यादा हो गई थी. दूसरे दिन जब पंडिज्जी मंदिर में आए तो देखा कि पत्थर कुछ जगहों पर अपनी जगह में नहीं हैं. उन्होंने वहीं से आवाज दी, "अवो मोटियारी हो....येदे पथरा ल कौन गिरा दे हे....मैं हा कालीच लगाए रहेव कृ क तरी ऊपर एक ल माड़े रहेव. मोर मेहनत सब्बो सिरा गे."
"येदे लइका मन त आँय पंडिज्जी, खेलत रिहीन हें बड़ बेरा ले. दउड़त - भागत ककरो गोड़ तरी आ गे होंही.... कोन ल कबे." चैती ने जवाब दिया
"त मोटियारी हो! तुमन लइकन बच्चन ल काबर नइ समझावव....हँइ....घर आँगन मँ खेले के चाही कृ इहाँ-उहाँ काबर किंजरत रथे....हँइ."
"अब कतिहाँ जाहिं नोनी-बाबूमन खेलेबर....इहिंचे रोजेच सुभीता मँ खेलथें."
"येदे भगवान के जागा हे....अऊ इंहा सांति होए के चाही....जाने."
उधर हडि़या भी यह सुन रहा था. उसने चैती को बुला लिया. पंडिज्जी ने आष्वस्ति का साँस भरा कि अब मंदिर सुरक्षित हो गया. वे मंदिर के चारों तरफ पर्दा बनाने यानी मिट्टी की दीवार उठाने की योजना पर सोचने लगे. पर उनका साथ यहां देगा कौन? ये लोग तो मंदिर में आते ही नहीं तो सहयोग क्या करेंगे. अभी तो मूर्ति की स्थापना ही हुई थी. माता परिवार वाले लोगों ने उन्हें चेताया था कि वे उन्हें सीधा सहयोग भी नहीं दे सकते क्योंकि ये लोग अनजान लोगों की दखलअंदाजी भी पसंद नहीं करते. सारी योजना पर पानी पड़ जाएगा यदि एकाएक तमाम गतिविधियां शुरू कर दी तो....ना....ना ...धीर में ही खीर है.
इधर पंडिज्जी अपनी योजनाओं को बहुत सावधानी के साथ लागू करने के लिए फूंक-फूंककर कदम रख रहे थे और उधर गाँव वाले पंडिज्जी की टोकाटाकी से व्यथित थे. इस घटना के बाद वे आपस में कुछ खुस-फुस गोठिया रहे थे. शाम को सब पीलाबाई के आंगन में बैठ गए और इस नई समस्या पर विचार करने लगे. हडि़या को लरंगसाय से बात करने के लिए कहा गया कि वह अपने घर रहने वाले को समझा ले. जब सारा गांव सोने चला था तो उसके पहले असंतोष ने अपनी चादर पसरा ही दी थी वहां के लोगों पर.
दूसरे दिन छोटी नदी के किनारे हडि़या की मुलाकात लरंगसाय से हो गई. तब हडि़या ने उससे पूछा, "कइसे तोर पहुना ह तो लइका मन ल पीपर कर खेले बर मना कर दिस हे."
लरंगसाय को इस बात का पता तो चल ही गया था, बोला, "हहो कृ जानत हँव...." उसने मछली मारने के लिए जाल फांदना बंद कर दिया और सोचता हुआ-सा बोला, "फेर हे तो गुरूजी....कइसन करबो....लइका मन ल पढ़ाथे...."
"हहो पढ़ाथे, पढ़ाथे....तभो ले वोला सोचे के त चाही......" हडि़या ने प्रतिवाद करते हुए कहा.
"का कहे के, करे के चाही....कुछ बिचार करे हव का?" लरंगसाय ने पूछा.
"तैं ह बता....का करे के चाही?" हडि़या ने चुनौती जैसे वापस फेर दी.
"महुँ ह रात भर बिचारत रहेंव....काबर कि मोरे कुरिया मँ रथे....त अइसे करथन कि आघु जभे अइसन कुछु करही त वोला चेता देबो....का कहिथस." लरंग ने अपने मत पर उसका विचार जानना चाहा.
"बने कहे तैं ह....ये दारी चुप्पे बइठे रहिथन....फेर कभु कुछू अइसन करही त चेताबो." हडि़या ने जवाब दिया. स्वीकृति पाते ही लरंगसाय ने कहा.
"चल त फेर पारा मोहल्ला ल चेता देबो....नई त मनखेमन छटपटात रहीं."
अब सारे गांव के लोगों ने लरंगसाय और हडि़या के विचार को सहमति दे दी. गांव फिर हरिया गया. जस का तस हो गया. उसकी धौंकनी चलने लगी. पंडिज्जी भी कोई कम थोड़ी ही थे. उड़ती चिडि़या के पंख गिनने वालों में से एक अनुभव सिद्ध कुशल और दक्ष. भांपते देर नहीं लगी कि उनके विरुद्ध हवा बन सकती है. उन्हें अपना एक पुराना कस्बा याद आ गया. उस कस्बे में वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रह रहे थे. गांव-घर तो बहुत पहले ही छोड़ चुके थे और साथियों के साथ चोरी छिपे मांस-मटन पर भी हाथ साफ कर लेते. मुहल्ले में आस-पास जाने कितनी ही मुर्गियाँ चुगतीं. एक दिन उन्होंने चुपचाप मुर्गी चुराकर खा-पीकर छुट्टी कर दी. पर जाने कैसे थे मोहल्ले वाले. उन्हें पता चल ही गया कि मुर्गी पर गुरुजी ने हाथ साफ किया है. गाहे-बगाहे बच्चे ही नहीं बड़े भी उनके घर के सामने दरवाजा बंद हो तो भी चिल्ला-चिल्लाकर जाते, "आम्हन बाम्हन जात के, कुकरी पूजे रात के."
और बस फिर क्या, इतना सुनते ही पंडिज्जी जैसे अंगारों पर लोटने लगते. सो अब बहुत सावधान रहने लगे हैं वे. हफ्ता-दस दिन तो सब ठीक चला पर फिर एक दिन यूँ हो गया कि पीलाबाई की मुर्गियों ने अपनी हदें पार कर ही दीं. सब मंदिर परिसर में अपने कुनबे सहित घुस गईं, जैसे पिकनिक मनाने गई हों. कुड़-कुड़,कुड़-कुड़, कुड़-कुड़, कुड़-कुड़ पूरा मंदिर ही गुंजायमान हो उठा. पंडिज्जी का धैर्य आज तो छूट ही पड़ा. वे सामने ही थे बकोध्यानम् में लगे हुए कि उनका जी उचाट हो गया. गुस्से से थई-थई करते मुर्गियों पर टूट पड़े. इस अकस्मात हमले से मुर्गियां घबरा गईं और जहां जी चाहा यानी जहां से जगह दिखी वहीं से बाहर - अंदर भाग लीं. पंडिज्जी की धोती की लांग भी खुल गई और वे हांफ भी गए. पैर का अंगुठा मुड़ा सो अलग और मोच आ गई मुफ्त में. वे सोच रहे थे कि एक बार डराकर भगा दूंगा तो ये सब मंदिर में नहीं आइंगी. पैर तो चोटिल हो ही चुका था. उनके हाथ एक डंडा पड़ गया. आव देखा न ताव बस मुर्गियों की ओर उछाल दिया. बाकी सब तो किसी तरह फुर्र-फार्र हो गईं.
बस एक चूजा चपेट में आ गया. पीलाबाई उधर से क्रोध में फुफकारती दौड़ती हुई आई और चूजे को उठाकर ले गई. पंडिज्जी को काटो तो खून नहीं. पर किसी ने उनसे दिन भर कुछ नहीं कहा तो शाम तक वे आश्वस्त हो गए. गांव वालों को बहलाने फुसलाने के तरीकों पर गौर कर रहे थे, ताकि सुबह ही उन पर अमल किया जा सके. चार मीठी बात करते ही ये लोग तो बिछने लगते हैं.
पर उनकी तदबीरें, तदबीरें ही रह गईं. उनकी ठोकर तले मंदिर के भगवान थे, उनका पैर भगवान के वस्त्रों से उलझा था....
परिचय :
हेमलता महिश्वरहेमलता महिश्वर,
जन्म: 5 नवंबर, 1966, बालाघाट, मध्यप्रदेश
शिक्षा: एम.ए., बी.एड, एम.फिल, पीएचडी
प्रकाशित कृतियां: स्त्री लेखन और समय सरोकार, उनकी जिजीविषा, उनका संघर्ष(संपादित)
समय की शिला पर(सम्पादक सदस्य)
अन्यथा, हंस, कथादेश, आलोचना, अपेक्षा, समयांतर, दलित अस्मिता आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
सम्पर्क: 98, बी.डी. ब्लाक-ए, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058.
मोबाइल: 919560454760
E-Mail : hemlatamahishwar@gmail.com

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