Friday 15 May 2015

दलित लेखक संघ विवाद : डा. अम्बेडकर को मानने वालों ने ही उनके नारे "संगठित रहो" को मानने से इन्कार कर दिया

डा. अम्बेडकर ने कहा था- संगठित रहो. लेकिन जो खुद को अम्बेडकर का अनुयायी कहते हैं, वही संगठित नहीं रहते. विचारों पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन झगड़ा? दुख होता है. संभव है कुछ लोग मेरी बात को हवा में उड़ाने का प्रयास करें, लेकिन यह उनकी इच्छा है. लेकिन जो मेरी पीड़ा है, उसे व्यक्त करना मैं जरूरी समझता हूं.
दलित लेखक संघ कोई इतने फायदे या प्रतिष्ठा दिलवाने वाला नाम नहीं है कि इसे झपटने की ज्यादा कोई जरूरत समझे, खासकर 4-5 वर्षों जो हालात चल रहे हैं. शील बोधि ने अजय नावरिया को अध्यक्ष पद संभालने की बात कहते हुए कहा था कि "दलित लेखक संघ की स्वाभाविेक मृत्यु हो चुकी है. यदि आप इसे पुन: जीवित कर सकते हैं तो कर लो."
महासचिव व अध्यक्ष दो पद ऎसे हैं जो अपने दायरे व अधिकार को लेकर उलझ पड़ते हैं. शील बोधि के समय भी यही हुआ, हीरालाल राजस्थानी के समय में भी. संगठन समन्वय से चलता है, मंच संचालन व अन्य कार्य के लिए सभी को मौका मिलना चाहिए. ताकि संगठन निरंतर चलता रहे, बढ़ता रहे. जब हम संगठन के सदस्यों को ही केवल दर्शक के रूप में बुलाते रहेंगे तो दूसरे लोग भी अपनी उपयोगिता संगठन में नहीं समझेंगे. सभी को मौका मिलना चाहिए.
हमें यह मानना ही ही पड़ेगा कि फिलहाल दलित लेखक संघ के जो दो फाड़ हुए हैं, वह केवल दो व्यक्तियों के अहम के कारण हुए हैं. जो मुद्दा मिल बैठकर सुलझाया जा सकता था, वह संगठन तोड़कर सुलझाने का प्रयास किया गया, जो आंदोलन के लिए बड़ा ही खतरनाक है. न तो संगठन का अध्यक्ष बनने से अजय नावरिया जी को ज्यादा फायदा मिलना है, न ही कर्मशील भारती जी को. रजनी तिलक के साथ भी यह बात नहीं हो सकती, वह तो पहले ही से बड़ा संगठन चला रही हैं.
दलित दस्तक(दलित मत) व अन्य शब्दांकन जैसी वेबसाइटों ने मित्रता खूब अच्छी तरह निभाई और बिना दूसरे का पक्ष जाने एक तरफा रिर्पोटिंग प्रकाशित कर दी.
मान्य उमराव सिंह जाटव उसी समय से अजय नावरिया जी के पीछे लगे हुए थे, जब तीन-चार लोग जमा हुए तथा उसमें अजय नावरिया को अध्यक्ष बना दिया, वे शील बोधि की उस बात को भूल गए कि दलित लेखक संघ की स्वाभाविक मृत्यु हो चुकी है, अजय जी आप इसे पुनर्जीवित कर सकते  हो तो कर लो.  उमराव जी  बार-बार फेसबुक पर कहते रहे कि तीन चार लोगों के अध्यक्ष. जबकि जो दलित लेखक संघ के साथी हैं, वे जानते होंगे कि बार बार सूचना देने के बावजूद लोग दलित लेखक संघ के चुनाव व कार्यक्रम/मीटिंग में नहीं पहुंच रहे थे. 10 मई 2015 को पहुंचे तो केवल छ:, जो एक गुट के थे. जैसा कि फेसबुक पर बताया जा रहा है. रजनी तिलक, हीरालाल राजस्थानी आदि केवल उन्हें ही अपने दलित लेखक संघ का सदस्य मान रहे थे. उन्हें पता ही नहीं था कि कौशल पवार, भीमसेन आनंद, नीलम रानी, राकेश आदि भी दलित लेखक संघ के सदस्य हैं, हां, वे अजय नावरिया के साथ थे. सभी को महसूस हो गया था कि यह अजय नावरिया के पक्ष में वोटिंग करेंगे.
उमराव सिंह जाटव जी ने हद ही कर दी. एक-दो दिन बाद फेसबुक पर अपनी चोट लगी पीठ का फोटो लगा दिया कि देखे, किस तरह की गुंदागर्दी दलित लेखक संघ के चुनाव के समय उनके साथ हुई. जबकि अजया नावरिया ने साफ मना कर दिया कि उनके साथ ऎसा कुछ नहीं हुआ. पता चला कि दलित लेखक संघ के चुनाव न हों, इसके लिए उमराव जी ने पुलिस तक बुला ली थी.
कुल मिलाकर अजय नावरिया जी अपने पक्ष के साथियों के कारण अध्यक्ष बन गए, निश्चित ही, यह उनके इतने फायदा का काम नहीं है, वे तो हीरालाल राजस्थानी को सबक सिखाना चाहते थे. इसका आभास उन्होंने हीरालाल राजस्थानी के मैसेज बाक्स  में उसी रात को दे भी दिया.
हीरालाल जी द्वारा चुनाव की घोषणा केवल अजय नावरिया को सबक सिखाना था, वे तय कार्यक्रम या पहले से तय कार्यक्रम के आधार पर चुनाव नहीं करवा रहे थे.
हीराला राजस्थानी भी कहां चुप रहने वाले थे, उन्होंने भी 12 मई 2015 को मीटिंग बुलाई और खुद महासचिेव व कर्मशील भारती जी को अध्यक्ष बना दिया. इस तरह दो दलित लेखक संघ बन गए, एक के अध्यक्ष  अजय नावरिया हैं, दूसरे के अध्यक्ष कर्मशील भारती जी हैं. एक की महासचित नीलम रानी हैं, दूसरे के महासचिव हीराला राजस्थानी हैं. यह तो अच्छा रहा कि पहले मा. विमल थोरात जी ने अपने अपने वाले दलित लेखक संघ का नाम बदलकर दलित साहित्य मंच रख लिया, अन्यथा इस समय तीन दलित लेखक संघ होते, तीनों ही खुद को असली दलित लेखक संघ घोषित. पिसता कौन.....? कहने की जरूरत नहीं.

रहा मैं, मैं सभी के साथ रहना चाहता हूं. हीरालाल राजस्थानी, शील बोधि, अजय नावरिया जी तीनों को जब मैंने कहा कि संगठन में गुटबाजी है. मैं उस जगह नहीं जाता जहां गुट बन जाएं. हीरालाल राजस्थानी जी को चूंकि तुरंत गुस्सा आता है, इसलिए उन्होंने तो मेरी इस बात पर ही मुझे अजय नावरिया वाले गुट में शामिल कर दिया. अजय नावरिया को कहा तो वह बोले, हम किसी गुटबाजी का शिकार नहीं हैं. शील बोधि जी ने भी कोई गुटबाजी होने से इंकार कर दिया. चूंकि मैं कोई बुद्धिजीवी तो हूं नहीं, जो किसी शब्द को इतनी गहराई से समझ पाऊं, हां, बुद्धिजीवी वर्ग के लोग मुझे समझाने का प्रयास करें कि यह गुटबाजी नहीं तो क्या है. गुटबाजी नहीं होती तो  सभी मिलकर उस व्यक्ति को अध्यक्ष व महासचिव बनाते, जिनपर किसी को विवाद नहीं होता, एक दूसरे को सबक सिखाने का प्रयास नहीं किया जाता.

कुल मिलाकर तो हुआ यही कि  डा. अम्बेडकर को मानने वालों ने ही उनके  विचार "संगठित रहो" को मानने से इन्कार कर दिया.
 संगठन तभी चलते हैं, जब हम अध्यक्ष की सुने तथा अध्यक्ष हमारी सुने. अध्यक्ष ऎसा हो, जिसका सभी सम्मान करे, वे कहना माने. अध्यक्ष भी सभी की सुने, सभी को एक करके चले. सभी की सलाह लेकर काम करे. जब किसी संगठन में राजनीति शुरू हो जाती है, वह बिखर जाता है. दलित लेखक संघ भी बिखर गया. हम सभी को सोचना है- हम सभी से कहां और क्या गलती हुई, वरना संगठन मत चलाओ, केवल लिखो. लिखना भी समाज सेवा ही है. जो नाम भी देगा, प्रतिष्ठा भी. इस समय संस्था के जरिए गैर दलितों को  हम सभी पर हंसने का मौका दिया है, इस पर विचार कर सकें तो कर लें. वरना अपनी तो सभी दलित लेखक संघ से अलविदा. 

कृपया मुझे यह भी बताने का प्रयास किया जाए कि जिन दिन समन्वय समिति बनी थी, उस दिन कौन-कौन थे? उस समय के फोटोग्राफ हों तो  बताएं. दूसरी बात क्या समन्व समिति का चुनाव करवाने का काम था या खुद ही चुनाव में भाग लेकर खुद ही पदाधिकारी बनना था.
कृपया ध्यान रखें कि कोई भी कोई भी कार्यक्रम करेगा, उसमें शामिल होने का मेरे पास समय होगा, मैं उसमें जरूर शामिल होने का प्रयास करूंगा. लेकिन कोई भी दलित लेखक संघ अपनी मीटिंग में मुझे न बुलाए, या अपनी संस्था के नाम बदले. आशा है, आप सभी मेरी भावना का सम्मान करेंगे. मुझे किसी तरह का लालच नहीं, न लेखन में नाम कमाने का या अन्य लाभ लेने का. मुझे केवल अपने काम पर ध्यान देना है. मैं न कोई प्रोफेसर हूं, न ही अध्यापक. न मेरी कोई दूसरी सरकारी या प्राइवेट नौकरी है. मुझे रोज कुआ खोदना पड़ता है, रोज पानी पड़ता है. सभी लोग मुझे क्षमा करेंगे,  ऎसी आशा है.
कोई(अजय नावरिया जी नहीं) मुझसे कहता है, अनिता भारती तुम्हारा बहुत नुकसान कर देगी , कोई कहता है यह अजय नावरिया से फायदा उठाना चाहता है. किसी ने यह तक कह दिया कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की यह बंदा इसलिए हेल्प कर रहा है कि यह उनसे फायदा उठाना चाहता है और न जाने क्या-क्या? अशोक भारती, मोहनदास नैमिशराय, विजय प्रताप आदि बहुत से लोगों को 1993 से जानता हूं. मोहनदास नैमिशराय उन दिनों नवभारत टाइम्स में थे, उन्होंने नवभारत में काम के लिए कहा, मैंने साफ मना कर दिया, नौकरी करने का स्वभाव नहीं है मेरा. अशोक भारती, रजनी तिलक आदि को मैंने कभी भी फायदे के लिए नहीं कहा, जबकि मिलते रहते हैं. संस्था मैं भी चलता हूं.1992-1993 में अशोक भारती के साथ मैंने जब काम किया है जब उनके यहां रामविलास पास की पत्रिका चक्र निकलती थी. उसका अन्य पत्र-पत्रिका, पुस्तकों का काम किया. उस समय मैं "आशा" नाम की पत्रिका भी निकालता था.
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने सही कहा था, दिल्ली राजनीति का अखाड़ा है. यदि मैं दिल्ली होता तो इतना व इतना अच्छा लेखन नहीं हो पाता, यह संभव देहरादून में ही हुआ.

हीरालाल राजस्थानी व अजय नावरिया जी : 

दलित लेखक संघ आपको इसलिए नहीं सौंपा था यह  कि संघ सार्वजनिक लड़ाई का अड्डा बन जाए. यदि कोई मतभेद था आप फोन करके, एसएमएस करके या किसी को बीच में लेकर सुलझाते. हीरालाल जी, यदि अजय जी ने कोई कार्यक्रम खुद ही तय कर लिया (वैसे तो यह इतनी बड़ी बात नहीं है,मैं करता तो गलत था), आपको इसपर आपत्ति थी तो आप अजय जी से  बात करते. वे बात नहीं करते तो उनके फेसबुक के मैसेज बाक्स में आपत्ति दर्ज करते. अजय नावरिया ने कहा कि आप उनका फोन नहीं उठा रहे थे, उठा लेते थे तो आप गुस्से में बोलते थे. अजय जी का फर्ज था कि कार्यक्रम की सूचना उनके मैसेज बाक्स में देते.
अध्यक्ष कार्यक्रम कर रहा है, हीरालाल राजस्थानी जी बिना किसी से बात किये सार्वजनिक स्थल फेसबुक पर डाल दिया कि कार्यक्रम अवैध है- आप महासचिव हो, इसलिए आप किसी कार्यक्रम को अवैध घोषित कर सकते हो? यदि दूसरे सदस्य, कार्यकारिणी, पदाधिकारियों को आप कुछ नहीं समझते? आपका फर्ज नहीं था कि आप उस कार्यक्रम को लेकर एक मीटिंग लेते और अपनी आपत्ति दर्ज करते, ताकि अध्यक्ष आगे से इस तरह का करते समय दस बार सोचते, चूंकि आपको गुस्सा बहुत आता है, इसलिए गुस्से का काबू न करते हुए तुरंत फेसबुक पर दलित लेखक संघ के कार्यक्रम को अवैध घोषित कर दिया, जिसके कारण हम दूसरों के सामने हंसी के पात्र बने. संगठन का कोई महासचिव है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वही हर बार मंच संचालन करे, दूसरों को भी मौका मिलना चाहिए.

अब उनके लिए, जो मुझे नया-नया लिखाड़ी समझ रहे हैं :

मैं अपने साथियों को बता दूं कि जब मैं घोषित रूप में दलित लेखक नहीं था, उस समय 1992-1993 में "आशा" नाम की पत्रिका निकालता था, उसके बाद प्रज्जवला नाम की पत्रिका का संपादक था. 1989 से 2000 तक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपा. 1989 से 1995 तक कई दलित कहानियां  एक गांव की दाई, रात की रानी, सफर की बात,   प्रेम की उमंग, माथे पर बिंदिया, भंगनिया, भैंस आदि आधा दर्जन के करीब प्रकाशित हो चुकी थी.चाहे मैं अच्छा न लिखता हूं, लेकिन मैं नया लेखक नहीं हूं. सन् 2000 से लेकर 2010 तक मैंने परिवार को संभालने के लिए लेखन बंद रखा. 2010 से ही लोगों से जुड़ा, दलित साहित्यकार के रूप में आपके सामने आया, पहले भी मैं साहित्य लिख रहा था, लेकिन वह दलित साहित्य था, मुझे नहीं  पता था.  तो अपनी, अपने समाज की पीड़ा लिख रहा था, व्यवसायिक लेखन के साथ-साथ. व्यवसायिक लेखन का तो मैंने कार्स भी किया था, बाद में कहानी लेखन भी किया.  मैं घोषित रूप में दलित लेखक नहीं था, लेकिन हमारी पत्रिका कहीं पर भारतीय दलित साहित्य अकादमी को कहीं मिल गई थी, उन्होंने उसी के आधार पर मुझे 1993 में अम्बेडकर फैलाशिप दिया. वो तो बाद में  ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा ही पता चला चला कि उसी दिन  उन्हें (ओमप्रकाश वाल्मीकि) को सम्मानित किया गया था.
-कैलाश चंद चौहान,
ईमेल : kailashchandchauhan@yahoo.co.in

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