Tuesday 10 June 2014

हिन्दी सिनेमा की भाषा तब और अब

- डा. जय कौशल
"सामान्य जीवन में हम सिनेमा की भाषा से उसके व्यवहारों से, चित्रों से, व्यवस्था से बेतरह प्रभावित रहते हैं. सिनेमा यानी पर्दे से छूटते ही सिनेमा का क्या होता है, हमारे अपने जेहन में, हमारी वाणी में. सिनेमा कैसे अपनी जगह तलाशता है, ये देखना बेहद मजेदार अध्ययन हो सकता है. मुझे अच्छी तरह याद है- बल्कि आजकल भी राजस्थान, बिहार, बंगाल आदि प्रान्तों के छोटे शहरों, कस्बों में जो फिल्मी-पोस्टर लगाए जाते हैं, उनकी तस्वीरों को देखकर ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म से क्या अपेक्षाएँ की जानी चाहिए?"

फिल्म और समाज के बीच गहरा रिश्ता होता है. जहां फिल्में समाज से विषयों का चुनाव करती हैं, वहीं समाज पर अपना असर भी डालती हैं. बहरहाल, मैं ‘हिन्दी सिनेमा की भाषा: तब और अब’ विषय पर अपनी बात रखूंगा. मैंने यह विषय इसलिए चुना है कि क्रिश्चियन मेट्ज से लेकर लेव मानोविच तक, फिल्म की भाषा को एक खास मुहावरे की तरह देखने और बताने की एक परंपरा रही है. जैसे फिल्म की भाषा एक अलग अंदाज-ए-बयाँ लेकर आती है, जो कि हमारी आम बोलचाल की भाषा से कुछ अलग है. इस बात की पड़ताल होनी चाहिए. दूसरे, सिनेमा की भाषा को लेकर ही हरीश त्रिवेदी ने एक लेख लिखा था- ‘इट्स आल काइन्ड्स आफ हिन्दी’, जिसमें उन्होंने स्थापित किया है कि हिन्दी सिनेमा में हर तरह की हिन्दी के लिए जगह है, और ये अच्छी बात है. उक्त दोनों सवालों और वर्तमान परिदृश्य को लेकर मैंने कुछ विचार किया है.
चूंकि सिनेमा में दृश्य भी हैं, श्रव्य भी और भी बहुत तरह के आयोजन भी हैं. जब हम भारतीय सिनेमा पर नज़र डालते हैं तो पता चलता है कि सिनेमा की भाषा के प्रचार-प्रसार, साहित्यिक रचनाओं के फिल्मी रुपांतरण, हिंदी गीतों को लोकप्रियता दिलवाने में, हिन्दी की उपभाषाओं, बोलियों, सांस्कृतिक एवं जातीय प्रश्नों को उभारने में बहुत बड़ा योगदान रहा है. हिन्दी भाषा की संचारात्मकता, शैलीवैज्ञानिक अध्ययन, जन संप्रेषणीयता, पटकथा-निर्माण, संवाद लेखन, दृश्यात्मकता, संक्षिप्त कथन, बिम्बधर्मिता, प्रतीकात्मकता आदि विभिन्न मानकों को भारतीय सिनेमा ने गढ़ा, निर्मित किया है. भारतीय सिनेमा हिन्दी भाषा, साहित्य और संस्कृति का लोकदूत बनकर इन तक पहुंचने की दिशा में अग्रसर है. हिंदी सिनेमा ने बीते सौ सालों में कई बार अपना स्वरूप बदला है. समय के साथ-साथ सिनेमा की तस्वीर भी बदलती चली गई. ये बदलाव फिल्मों में हिंदी भाषा के प्रयोग में भी आए. जहाँ हिंदी सिनेमा की शुरुआत 1913 में रिलीज हुई मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से हुई, वहीं बदलते वक्त ने 1931 में अर्देशिर ईरानी द्वारा निर्देशित भारत को उसकी पहली टाॅकी ‘आलम आरा’ दी. अगर फिल्मों में संवादों की बात हो तो जाहिर है शुरुआत ‘आलम आरा’ से ही करनी होगी. जहां शुरुआती दौर में भाषा साफ, लयबद्ध और सरल थी, वहीं आधुनिक युग की भाषा के कई रंग हैं. पहले की भाषा बेहद रचनात्मक, लोक और देशकाल की दृष्टि से अर्थगर्भित होती थी. श्लीलता, चारित्रिकता और भाषाई साफगोई का पूरा ध्यान रखा जाता था, जबकि आज की तारीख में ‘स्लैंग’ शब्दों का प्रयोग फिल्मों में बेबाक तरीके से हो रहा है. गुलजार के गीत ‘मोरा गोरा अंग लई ले’ से लेकर अमिताभ भट्टाचार्य के ‘भाग-भाग डीके बोस’ तक भाषा के प्रयोग में कितना अन्तर आ गया है, ये आप खुद ही देख सकते हैं. क्या यही हिन्दी के ‘आॅल काइंड्स’ हैं? और इन्हें ‘अच्छा’ कहा जाना चाहिए?
असल में, हिन्दी सिनेमा या भारतीय सिनेमा की वाचालता, प्रगल्भता, इसके बातूनीपन को देखते हुए भी हमने इसकी भाषा के अध्ययन को एक तरह से नजरअंदाज किया है. जबकि हम भाषा में ही सिनेमा को याद रखते हैं,  ऊपर के कथन से अलग जाते हुए कहूं तो सामान्य जीवन में हम सिनेमा की भाषा से उसके व्यवहारों से, चित्रों से, व्यवस्था से बहुत प्रभावित रहते हैं.
सिनेमा यानी पर्दे से छूटते ही सिनेमा का क्या होता है, हमारे अपने जेहन में, हमारी वाणी में. सिनेमा कैसे अपनी जगह तलाशता है, ये देखना बेहद मजेदार अध्ययन हो सकता है. मुझे अच्छी तरह याद है- बल्कि आजकल भी राजस्थान, बिहार, बंगाल आदि प्रान्तों के छोटे शहरों, कस्बों में जो फिल्मी-पोस्टर लगाए जाते हैं, उनकी तस्वीरों को देखकर ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म से क्या अपेक्षाएँ की जानी चाहिए? इसमें ऐक्शन है या रोमान्स, मारधाड़ है या प्यार, या कुछ और, या सब-कुछ का घालमेल. लेकिन इसके अलावा एक और महत्त्वपूर्ण चीज होती थी, जिसे हम रेडियो पर विविध भारती चैनल आदि के माध्यम से सुनते थे- आने वाली फिल्म के हिट डायलाग, यह बताते हुए कि फिल्म के आकर्षण ये भी हैं. मुझे ये चीजें बहुत दिलचस्प लगती थीं कि ये कैसे हो रहा है कि सिनेमा को लोगों तक ले जाने के लिए दीगर माध्यमों का इस्तेमाल होता है. रेडियो इसी श्रृंखला की बहुत जरूरी कड़ी है. फिल्म देखकर आने के बाद दिलचस्प ढंग से वे डायलाॅग हमारी बातचीत का हिस्सा हो जाते थे. जिस साल मुगले-आजम आई, तो तत्कालीन प्रेमियों को मानो अभिव्यक्ति की एक नई भाषा ही मिल गई-प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छिप-छिप आहें भरना क्या.’ अकबर और सलीम के संवादों ने पिता-पुत्रा के बीच बातचीत को एक नया संदर्भ दिया. ये आज भी होता है.
सिनेमा भाषा के प्रचार-प्रसार का एक जबर्दस्त माध्यम है. इसे मैंने गैर-हिन्दी भाषी प्रदेशों में रहते हुए करीब से देखा है. त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में, जहां हिन्दी को लेकर  कितने ही सरकारी प्रयास किए हों, जो असर सिनेमा से पड़ा है, उतना किसी तरीके से नहीं. वहां छोटे-छोटे बच्चे तीर-कमान लेकर गाते हुए मिल जाते थे- ‘मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाय.’ वे सब बड़ी आसानी से हिन्दी और उसके अनुप्रयोग समझ रहे हैं. उन्हें किसी ने क्लास में बुलाकर या एक ‘इंक्रीमेंट’ का लालच देकर हिन्दी सीखने को प्रेरित नहीं किया है. बहरहाल, ये भाषा और सिनेमा के अंतर्संबंध का सकारात्मक पहलू है. मुझे अपनी बात इसके नकारात्मक हिस्से को लेकर करनी है.
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, सिनेमा की भाषा को लेकर हरीश त्रिवेदी का लेख ‘इट्स आल काइन्ड्स आफ हिन्दी’ इस नज़रिए से काफी महत्त्वपूर्ण है. इसमें उन्होंने यही घोषित किया है कि हिन्दी सिनेमा में हर तरह की हिन्दी के लिए जगह है और ये अच्छी बात है. मेरा सवाल इस ‘हर तरह की हिन्दी’ और ‘अच्छी बात’ पर ही है. यहां मैं खराब हिन्दी या भद्दी हिन्दी, हिंगलिश, अच्छी उर्दू, खराब उर्दू, भद्दी उर्दू आदि भाषिक मेलों की बात नहीं कर रहा हूं. मेरा फोकस भाषा के प्रचलित शब्दों, मुहावरों के अर्थ-परिवर्तन यानी अर्थ-संकोच, अर्थ विस्तार या अर्थों के रूढि़करण पर है. हम जानते हैं कि सिनेमा का समाज पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है, इस तथ्य का उपयोग अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में संभव है. भाषा के संबंध में भी. सिनेमा में प्रयुक्त हुए एक-एक शब्द, हरेक डायलाॅग का अपना असर होता है. अगर आपको समाज में किसी शब्द को ‘क्वाइन’ करवाना है, बस उसका किसी फिल्म में प्रयोग करा दीजिए, फिर देखिए. गांधीगीरी, हिन्दी कर देना.....जैसे कितने ही शब्द-पद इसके उदाहरण हैं.
एक समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था कि रेडियो पर वैसे गाने नहीं बजाए जाएंगे जिनके शब्द ठीक नहीं हैं, फ़ोहश हैं, यानि एक तरह की श्रव्य सेंसरशिप भी लागू थी और बाज मर्तबा मजेदार स्थितियां भी पेश आती थीं, जिनका समय-समय पर श्रोता वर्ग ने लुत्फ लिया, समर्थन किया तो विरोध भी. कई गाने रिकार्डों पर तो होते थे, लेकिन फिल्म से गायब पाए जाते थे, कई गानों के कुछ अंश ही फिल्म या प्रसारण से उड़ा दिए जाते थे. सिर्फ एक ही फिल्म की मिसाल लेते हैं. अमेरिकावासी उद्भट सिनेसंगीत-रसिया सतीश कालरा के अनुसार, फिल्म छलिया(1960) का सबसे पहला शीर्षक गीत था ‘छलिया मेरा नाम’....जिस पर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति की थी कि इससे फिल्म के नायक के व्यवसाय का पता चलता है कि वह जेबकतरा है. इसलिए रिकाॅर्ड पर दिए गए मुखड़े - छलिया मेरा नाम, छलना मेरा काम -2 को बदलकर यूं कर दिया गया था - छलिया मेरा नाम, छलिया मेरा नाम. ‘आवारा’ जैसे शब्द जरूर चले थे पर इसमें वैसी अशिष्टता नहीं है.
इसी तरह इस फिल्म के अन्य गीत ‘डम डम डिगा डिगा’ में भी हेर-फेर हुआ था. प्रथम अंतरे की अंखियाँ झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं देखो लुटेरा आज लुट गया... पंक्तियों को बदलकर ‘अंखियां झुकीं-झुकीं, बातें रुकीं-रुकीं, देखो कोई रे आज लुट गया’ कर दिया गया था. इसके दूसरे अंतरे के बीच की पंक्तियों, धंधा खोटा सही, बन्दा छोटा सही को नसीबा खोटा सही, बंदा छोटा सही कर दिया गया था. गीत का तीसरा अंतरा - तेरी कसम तू मेरी जान है, मुखड़ा भोला-भाला, छुपके डाका डाला...तो फिल्म से शायद काट ही दिया गया था क्योंकि यह वीडियो कैसेट, आदि पर भी सुनाई नहीं देता. आजकल न तो श्रव्य की सेंसरशिप बची दृश्य की. एक तो वह जमाना था और  एक आज का समय है.
जिस तरह की द्विअर्थी भाषा का प्रयोग ‘डैली बैली’, ‘गैंग्स आफ वासेपुर’, ‘ग्रांड मस्ती’, ‘रामलीला’, ‘बाॅस’ या आजकल आ रही फिल्मों में हो रहा है क्या उससे हिंदी के स्तर में गिरावट नहीं आई है? क्या आपको ‘कमीने’, ‘लफंगे-परिन्दे’, ‘बद्तमीज’ सुनकर अब पहले जितना बुरा लगता है. आजकल आ रही फिल्मों ने इन शब्दों के अर्थ का विस्तार कर दिया है. पहले जिन्हें सुनकर गुस्से या अपमान का बोध होता था, अब वहां गर्व जैसा कुछ महसूस होता है. पहले प्यार में ‘पगला’, ‘पगली’, ‘बेवकूफ’, ‘नादान’ कह दिया जाता था, आजकल बद्तमीज, लफंगे, कमीने और बहुत कुछ द्विअर्थी, जिसे यहां बताया भी नहीं जा सकता. अब तो फिल्मों को ‘यू’, ‘ए’ सर्टिफिकेट देना या उन्हें ‘बी’ या ‘सी’ ग्रेड में श्रेणीगत करना फालतू की कवायद लगती है. सब जगह कमोबेश एक जैसी ‘डर्टी पिक्चर’ हैं. चूंकि ये सब हमारे लोक में भी मौजूद है अथवा जनता ऐसा ही सिनेमा चाहती है, क्या ऐसे लचर तर्क देकर समस्या से किनारा कर लिया जा सकता है. शायद नहीं. ना ही आप मुझ पर सामंती नैतिकतावादी होने का आरोप लगाकर मुद्दे से बच सकते हैं. मैं ये नहीं कह रहा कि साहित्य में ऐसे प्रयोग नहीं हुए हैं. बरसों पहले भीष्म साहनी ने ही एक कहानी लिखी थी- ‘ओ हरामजाद’. पर इसके बावजूद ऐसे प्रयोगों को ऐसा कथित ‘अर्थ-गौरव’ नहीं मिला था, जैसा आजकल के सिनेमा से मिला है. ‘आधा गांव’, ‘काशी का अस्सी’ अथवा समकालीन अस्मितावादी साहित्य में भी गालियों का प्रयोग मिल जाता है, पर वह सोद्देश्य है, घटिया मनोरंजन मात्रा वहां नहीं है. मुझे गंभीरतापूर्वक लगता है कि सिनेमा की सामाजिक सोद्देश्यता, उपयोगिता और ‘पाॅप्युलेरिटी’  देखते हुए मात्रा मनोरंजन के नाम पर ऐसे घटिया द्विअर्थी उपयोगों से बचा जाना चाहिए.

परिचय :

जय कौशल
1981 में राजस्थान के अलवर जिले में जन्म. 2009 से 2013 तक त्रिपुरा विश्वविद्यालय में और अब प्रेसीडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक. जेएनयू से ‘वी.एस. नायपाल के उपन्यास हाफ ए लाइफ का हिन्दी अनुवाद’ पर एम.फिल और ‘प्रेमचन्द की कहानियों के अंग्रेजी अनुवादों का आलोचनात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी. दो पुस्तकें, कुछ आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। फिलहाल कोलकाता में रहनवारी.  मो. नं.: 09612091397
ईमेल: jaikaushal81@gmail-com
पता: हिन्दी विभाग, एन एस बिल्डिंग,
86ध्1, काॅलेज स्ट्रीट,   प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता-73

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